कोरिया जिले के जिला मुख्यालय बैकुंठपुर के प्रेमाबाग कॉलोनी में हुई एक हृदयविदारक दुर्घटना ने एक बार फिर हमारी लापरवाह प्रणाली और अव्यवस्थित यातायात व्यवस्था की पोल खोल दी है। मात्र 8 वर्ष की मासूम बालिका, जो अपने ही घर की बाउंड्री के अंदर खेल रही थी, एक स्कॉर्पियो वाहन की चपेट में आ गई। बताया जा रहा है कि वाहन चला रहा युवक गाड़ी चलाना सीख रहा था। यह दुर्घटना केवल एक परिवार का ही नहीं, पूरे समाज का नुकसान है।
शहर की तंग गलियों और रहवासी क्षेत्रों में वाहन चलाने का प्रशिक्षण लेना कितना खतरनाक हो सकता है, यह इस घटना ने स्पष्ट कर दिया है। सवाल यह उठता है कि जब शहर के भीतर कहीं भी सुरक्षित और उपयुक्त स्थान ड्राइविंग प्रशिक्षण के लिए उपलब्ध नहीं है, तो क्या बीच सड़क को प्रशिक्षण केंद्र बना देना न्यायसंगत है?
दोष केवल वाहन चलाने वाले या सिखाने वाले व्यक्ति का नहीं है, बल्कि इसमें प्रशासनिक उदासीनता भी उतनी ही जिम्मेदार है। आरटीओ और यातायात विभाग की जिम्मेदारी बनती है कि वे ड्राइविंग सिखाने वाली संस्थाओं की नियमित जांच करें और यह सुनिश्चित करें कि प्रशिक्षण उचित स्थानों पर हो रहा है। परंतु हालात यह हैं कि शहर के बीचोंबीच, बाजारों और कॉलोनियों में नए चालक खुलेआम वाहन चलाना सीख रहे हैं।
सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि ड्राइविंग लाइसेंस जैसे गंभीर दस्तावेज बिना पर्याप्त प्रशिक्षण और जांच के बांटे जा रहे हैं। सवाल यह भी उठता है कि आरटीओ विभाग द्वारा वाहन चालकों की परीक्षा कहां और कैसे ली जा रही है? अगर परीक्षण में लापरवाही बरती जा रही है तो इससे और भी कई मासूम जिंदगियां खतरे में पड़ सकती हैं।
समय आ गया है कि हम ऐसे हादसों को केवल “दुर्घटना” कहकर न टालें। प्रशासन को चाहिए कि:
1. शहर के बाहर निर्धारित सुरक्षित क्षेत्र में ही वाहन चलाने का प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाए।
2. प्रशिक्षण देने वाली संस्थाओं का पंजीयन और नियमित निरीक्षण सुनिश्चित हो।
3. लाइसेंस जारी करने की प्रक्रिया पारदर्शी और व्यावहारिक हो, केवल औपचारिकता न हो।
4. रहवासी इलाकों में ड्राइविंग प्रशिक्षण देने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए।
मासूमों की जान की कीमत किसी की लापरवाही से कम नहीं आंकी जानी चाहिए। यदि हम अब भी नहीं जागे, तो ऐसी घटनाएं आम होती जाएंगी और हम केवल अफसोस जताते रह जाएंगे।